Friday, July 2, 2010

फिर ढोलक पर थाप पड़ी है

शाम कठिन है रात कड़ी है
आओ कि ये आने की घड़ी है

वो है अपने हुस्न में यकता
देख कहां तक्द़ीर लड़ी है

मैं तुम को ही सोच रहा था
आओ तुम्हारी उम्र बड़ी है

काश कुशादा दिल भी रखता
जिस घर की दह्लीज़ बड़ी है

फिर बिछड़े दो चाहने वाले
फिर ढोलक पर थाप पड़ी है

वो पहुंचा इम्दादी बन कर
जब जब हम पर भीड़ पड़ी है

शहर में है इक ऐसी हस्ती
जिस को मिरी तक्लीफ़ बड़ी है

हंस ले 'रहबर` वो आये हैं
रोने को तो उम्र पड़ी है


श्री राजेंद्र नाथ रहबर

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