शाम कठिन है रात कड़ी है
आओ कि ये आने की घड़ी है
वो है अपने हुस्न में यकता
देख कहां तक्द़ीर लड़ी है
मैं तुम को ही सोच रहा था
आओ तुम्हारी उम्र बड़ी है
काश कुशादा दिल भी रखता
जिस घर की दह्लीज़ बड़ी है
फिर बिछड़े दो चाहने वाले
फिर ढोलक पर थाप पड़ी है
वो पहुंचा इम्दादी बन कर
जब जब हम पर भीड़ पड़ी है
शहर में है इक ऐसी हस्ती
जिस को मिरी तक्लीफ़ बड़ी है
हंस ले 'रहबर` वो आये हैं
रोने को तो उम्र पड़ी है
श्री राजेंद्र नाथ रहबर
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