Sunday, June 13, 2010

क्या ग़रीबों का भी ख़ुदा है कोई

ईद का चांद हो गया है कोई
जाने किस देस जा बसा है कोई

पूछता हूं मैं सारे रस्तों से
उस के घर का भी रास्ता है कोई

एक दिन मैं ख़ुदा से पूछूं गा
क्या ग़रीबों का भी ख़ुदा है कोई

इक मुझे छोड़ के वो सब से मिला
इस से बढ़ के भी क्या सज़ा है कोई

दिल में थोड़ी सी खोट रखता है
यूं तो सोने से भी खरा है कोई

वो मुझे छोड़ दे कि मेरा रहे
हर क़दम पर ये सोचता है कोई

हाथ तुम ने जहां छुड़ाया था
आज भी उस जगह खड़ा है कोई

फिर भी पहुंचा न उस के दामन तक
ख़ाक बन बन के गो उड़ा है कोई

तुम भी अब जा के सो रहो 'रहबर`
ये न सोचो कि जागता है कोई

श्री राजेंद्र नाथ रहबर

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